नई दिल्ली: आज, 8 नवंबर, सुप्रीम कोर्ट की सात जजों की बेंच एक महत्वपूर्ण कानूनी मामले में निर्णय सुनाएगी, जिसमें यह तय किया जाएगा कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) को संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत एक अल्पसंख्यक संस्थान माना जा सकता है या नहीं। इस बेंच की अध्यक्षता Chief Justice डी.वाई. चंद्रचूड़ करेंगे, जो आज अपने लास्ट वर्किंग डे पर इस मामले का फैसला लेने की संभावना है।
यह मामला 2006 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले से उत्पन्न हुआ, जिसमें अदालत ने एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान के दर्जे से वंचित कर दिया था। यदि एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा नहीं मिलता, तो इसे अन्य सार्वजनिक विश्वविद्यालयों की तरह शिक्षकों और छात्रों के लिए आरक्षण नीतियों को लागू करना पड़ेगा। इसके विपरीत, अगर एएमयू को यह दर्जा मिलता है, तो यह विश्वविद्यालय मुस्लिम छात्रों के लिए 50% आरक्षण दे सकेगा।
1967 में एस. अजीज बाशा वर्सेस भारत संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान नहीं माना जा सकता, क्योंकि यह न तो मुस्लिम समुदाय द्वारा स्थापित था और न ही इसे उस समुदाय द्वारा संचालित किया गया था। हालांकि, 1981 में एएमयू अधिनियम में संशोधन कर इसे ‘भारत के मुसलमानों द्वारा स्थापित’ बताया गया।
2005 में जब एएमयू ने अल्पसंख्यक दर्जे का दावा करते हुए चिकित्सा पाठ्यक्रमों में मुस्लिम छात्रों के लिए 50% सीटें आरक्षित कीं, तो इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इसे खारिज कर दिया।
इस मामले में केंद्र सरकार ने 2016 में अपनी ओर से हटते हुए अब एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे का विरोध किया है। केंद्र का कहना है कि एएमयू कभी भी अल्पसंख्यक संस्थान नहीं रहा है। याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि यह महत्वपूर्ण नहीं है कि विश्वविद्यालय का प्रशासन कौन करता है, बल्कि अनुच्छेद 30 (1) अल्पसंख्यकों को स्वतंत्रता प्रदान करता है।
आज का फैसला एएमयू के भविष्य के लिए महत्वपूर्ण साबित हो सकता है। यदि एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान माना जाता है, तो इसके आरक्षण और नीतियों में बड़े बदलाव संभव हैं। यह निर्णय न केवल एएमयू के लिए, बल्कि अन्य संस्थानों के लिए भी एक मिसाल बनेगा, जो अल्पसंख्यक संस्थान होने का दावा करते हैं।